Saturday, April 30, 2011

jasvinder dhani - Maa 01


   मुझे ऐसा क्‍यों लगता है ?

हे माँ, तुम इस दुनिया से जा चुकी हो।
मगर, मुझे ऐसा क्‍यों लगता है ?
कि तुम हो, यहीं कहीं हो।

हे माँ, तुम पंचतत्‍व में लीन हो चुकी हो।
मगर, मुझे ऐसा क्‍यों लगता है ?
कि तुम अभी भी, इस संसार में उसी रूप में हो।

हे माँ, लाख बुलाने पर भी तुम शायद न आ सकोगी।
मगर, मुझे ऐसा क्‍यों लगता है ?
कि मैं तुम्‍हें जब भी पुकारूंगा, तुम आ जाओगी।

हे माँ, तुम मुझसे बिछुड़ चुकी हो ।
मगर मुझे ऐसा क्‍यों लगता है?
कि तुम अब भी मेरे पास हो, अब भी मेरे पास हो।

हे माँ, मुझे तुमसे बिछुड़ने को अहसास क्‍यों नहीं होता
मैंने इन्‍हीं हाथों से तेरा अन्तिम संस्‍कार किया।
मैंने इन्‍हीं हाथों से तेरी अस्थियों को जल प्रवाहित किया।
मगर मुझे ऐसा क्‍यों लगता है ?
तुम हो, अभी भी हो, अभी भी हो...

हाँ  माँ, तुम हो... अभी भी हो।
अगर सॉंसों के चलने को जीवन कहते हैं।
तो माँ, तुम जीवीत हो, मेरी साँसों में
    अगर दिल के धड़कने को जीवन कहते हैं।
    तो माँ, तुम जीवीत हो, मेरे दिल की हर धड़कन में।
    अगर रगों में लहु के दौड़ने को जीवन कहते हैं।
    तो माँ, तुम जीवीत हो, मेरे लहु की हर बूंद में
तुम हो, अभी भी हो, मेरी साँसों में, मेरे लहु में, मेरी धड़कन में
मुझे हर पल यह अहसास दिलाते हुए
कि तुम हो.. तुम हो.. तुम अभी भी मेरे पास हो।


                  This Poem is dedicated to my beloved Mother 


                
         
            

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