गज़ल
रोग बनकर रह गया
प्यार तेरे शहर का।
मैंने मसीहा देखा है
बीमार तेरे शहर का।।
इसकी गलियों ने मेरी
चढ़ती जवानी खा ली।
क्युं करुं न दोस्त
सत्कार तेरे शहर का।।
शहर तेरे में कदर नहीं
लोगों को सच्चे प्यार की।
रात को खुलता है हर
बाज़ार तेरे शहर का।।
फिर मंज़िल के लिए
एक कदम भी न बढ़ाया मैंने।
इस तरह चुभा फिर कोई
शूल तेरे शहर का ।।
मरने के बाद भी जहॉं
कफ़न न हुआ नसीब।
कौन पागल अब करे
एतबार तेरे शहर का।।
यहां तो मेरी लाश भी
नीलाम कर दी गई।
कर्ज़ न उतर सका फिर भी
ए यार तेरे शहर का।।
शिवकुमार बटालवी द्वारा पंजाबी में लिख ‘’संपूर्ण काव्य संग्रह’’ में से एक गज़ल का जसविन्दर धनी द्वारा हिन्दी रूपान्तर
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