Saturday, April 30, 2011

jasvinder dhani-Mere apne vichaar 02


इन्‍सान जन्‍म लेता है इस दुनियाँ में। उसके इर्द-गिर्द बन्‍धनों के घेरे खींचे जाते हैं। उसे कोई सुध नहीं होती। और यह सब उसकी इच्‍छा से नहीं होता1 उसका नामकरण किया जाता है1 राम, रहीम, सतनाम या फिर सोलोमन अर्थात धर्म का पहला बन्‍धन। ऐसा नहीं है कि एक बन्‍धन से उसको छुटकारा मिल जाय। अभी तो शुरुआत हुई है अभी तो उसे यह बताया जायगा कि वह ब्राह्मण है या क्षत्रिय, सिया है या सुन्‍नी, अकाली है कि निरंकारी, प्रोटेस्‍टंट है या केथोलिक  इन सभी बन्‍धनों के साथ जुड़ी है उसकी भाषा, मातृभाषा या माँ बोली। भाषा को हम बन्‍धन नहीं मानते हैं क्‍योंकि यह उसे दुनियाँ  में अपने जीवन की शुरुआत करने की राह दिखाती है। प्रगति की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्‍त करती है। अब शुरुआत होती है संबंधों की.. सगे संबंध.. एक ही माता पिता की संतान। सगे भाई-बहनों में भी विचारों में अन्‍तर हो सकता है, अपनी इच्‍छा के अनुरूप नहीं।

शिक्षा शुरु हुई। .. यहाँ से इन्‍सान के संबंध अपने इच्‍छा से शुरु होते हैं। विद्यालय वह पवित्र स्‍थान है जहाँ कोई भी धर्म-जाति का भेदभाव किये बिना शिक्षा दी जाती है। इन्‍सान के संबंध बनते हैं, मित्रता होती है समान विचारों वाले इन्‍सान के साथ। .. कोई बन्‍धन नहीं, खुली छूट..जिसके साथ विचार मिले मित्रता हो गई। संबंध भाईयों से कम नहीं। स्‍कूल या कॉलेज की मित्रता जीवन भर बनी रहती है इस प्रकार विद्यालय ही ईट्टों को वह भट्ठा है जहां राष्‍ट्ररूपी भवन को बनाने वाले इट्टें बनती हैं एवं सिंकती है। राष्‍ट्रीय एकता की भावना पनपती है तो शिक्षा के केन्‍द्र विद्यालय से।

मातृभाषा एक नदी है। जिस प्रकार छोटी-बड़ी सभी नदियाँ अपना रास्‍ता तय करते हुए समुद्र में जा मिलती है और बिना किसी भिन्‍नता के समुद्र में इनका संगम हो जाता है। समुद्र सभी नदियों की एकता की पहचान है इसी प्रकार हिन्‍दी भी हमारे समुद्ररुपी भारत की एकता की पहचान है जो अलग-अलग भाषा भाषियों को एक सुत्र में बांधने का कार्य करती है।

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